रस्सी पंखे वाली क्रांति वाया डिप्रेशन
रस्सी पंखे वाली क्रांति वाया डिप्रेशन
लेख- रोहित अनिल त्रिपाठी
आधुनिकता से उपजी जरूरतों ने नए नए अविष्कार हमसे भले करवाए हों लेकिन नई नई बीमारियां भी दे दीं. अकेलापन और डिप्रेशन आधुनिकता की ही फसल है. हमें तरक्की प्यारी लगी हम काम मे उलझे और ऐसा उलझे कि जब वापस लौटे तो खुद को अकेला पाया. अच्छा दिक्कत इतनी ही नहीं है , हम ख़ुशी भी अकेले सेलिब्रेट करने लगे हैं, जब आप ख़ुशी अकेले मनाएंगे तो आपके ग़म कौन साथ मे मनाएगा. वो भी अकेले ही मनाना पड़ेगा। उसी ग़म की उपज है, डिप्रेशन. आदमी जब हतोत्साहित हुआ तो वो अपने आस पास के लोगों को खोजने लगता है और वहाँ खुद को जब अकेला पाया तो फिर डिप्रेस्ड. डिप्रेशन के बाद वही रस्सी , पंखा और गले वाली क्रांति।.
अच्छा इसकी जिम्मेदारी हमारी छोटी छोटी आदतों की भी है. हमे प्राइवेसी भी चाहिए और हमें डिप्रेशन में भी नहीं जाना. मतलब हमारे राज कोई जाने भी न, दुख किसी को बताएं भी न और हम भारी भी न महसूस करें. दोनों नहीं हो सकता न भाई? नहीं होगा.
अब देख लो भइया कल्चर ही ऐसा बन गया है अब औपचारिक टाइप का. लोग खुल के कहने और बोलने से परहेज करने लगें हैं. यहाँ तक की जोर से हँसना भी मैनर्स के बाहर माना जाने लगा है. एक बिल्डिंग है उसमें कुछ फ्लैट हैं, जिनमे रहने वालों से आपका लिफ्ट तक का सम्बंध है. सोसायटी बची ही नहीं है. सोसायटी पर जोक्स,मीम्स बड़े बने हैं कि सोसायटी टोकती है, व्यंग्य करती है. लेकिन सोसायटी आपको कभी अकेला नहीं पड़ने देती है, ये बात भी स्वीकारें और ये भी मानें कि हम अपना जोन मेंटेन करने के चक्कर मे सबसे कटते जा रहे जिसका नतीजा ये हो रहा है. बेटे को बाप का कमरे में अचानक आना भी खल रहा है. मम्मा से ज्यादा देर बात नहीं करते अब लड़के. दोस्त सोशल मीडिया पर ज्यादा हैं , निजी जिंदगी में कम. सामने से तो भड़ास निकल ही नहीं रही. लिखने वाले तो खैर मान लो लिख के असंतुष्टि मिटा लेते हैं.
अच्छा एक और वजह है, सख्त गार्जियन नाम की चीज अब बची ही नहीं है. बिना बात के गरियाने वाले बाप रह नहीं गए हैं. बेइज्जती की आदत डलवाने वाले पिता ही होते हैं लेकिन पिता तो ढल गए. अब आप बताओ लौंडा अगर असफल हो के लौटे तो क्या करेगा. वैसे जलील करते रहते तो चलो पापा की तो आदत है , बोल के अवॉयड कर जाता है. अभी क्या है याद ही नहीं है पिता ने ज़लील कब किया था. कूटा कब था. फेल्योर और बेइज्जती की आदत हमेशा से बच्चों को देनी चाहिए. वरना अचानक से डांट मिलेगी तो वो उसे प्रतिष्ठा का विषय ही बनाएगा भले आप उसके बाप ही क्यों न हो.
रिश्तेदारों के ताने भी कम होने शुरू हो गए हैं. कुल मिला के जिन्दगी आसान बनाने के चक्कर मे, जीवन बिन रोकटोक चलाने के चक्कर मे हम जीना मुश्किल किये जा रहे. बड़ा कुछ है जो केवल घरवालों के ताने से ठीक हो जाता है. लेकिन हम उसे ईगो पर जोड़ कर अब उनसे ही दूर होने लगे हैं.
फिर एक समय असफल होने के बाद जब घरवालों के कंधे की जरूरत पड़ती है तो हम किस मुंह से जाएं वाले धर्मसंकट में फँस लेते हैं, कारण कि अब तक तो हम उन्हें अवॉयड करते आए हैं. तो हम रस्सी, पंखा और बेस्ट एंगल ढूंढने लगते हैं.
जरूरत से कम जीना ईश्वर का अपमान है. इसे सबको समझना चाहिए. मेरी एक बुआ का छोटा सा लड़का है. गर्मी की शादी में घर आया वो किसी से बात ही न करे. साथ के बच्चों का मुंह नोच ले, कहीं काट लेना. कारण वही फ्लैट कल्चर. आदत ही नहीं है न बात की. डेढ़ महीने करीब गांव में रहा, और अच्छा खासा बात करने लगा. जब बात करने लगा तो खीझ मिटी और मुंह नोचना या काटना छोड़ दिया.
कहने का इतना ही मतलब है बेशक आपको अकेलापन पसन्द हो , लेकिन घण्टे भर को ही सही बाहर निकलिए. लोगों से मिलिए बात करिये. अभी आप के पास कोई परेशानी नहीं है तो अकेलापन रास आ रहा , कल जब आप परेशान होंगे तो यही स्थिति आपसे ही आपका गला कसवा देगी.
घरवाले बेशक आपको सैकड़ों काम दे डालें, सोसायटी आप पर ताने कस लें लेकिन इतना तय है कि ये आपको मरने तो नहीं देंगे वो भी इस मुए डिप्रेशन से.
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लेख- रोहित अनिल त्रिपाठी