प्रेमचन्द और पत्रिकाएँ
प्रेमचन्द का नाम सुनते ही हमारे दिमाग़ में “ईदगाह” आता है।
आप जानते हैं प्रेमचन्द जी ने करीब 300 से ज़्यादा कहानियाँ लिखीं और लगभग 12 उपन्यास लिखे। पर इसके चलते प्रेमचंद जी ने पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। यह बहुत अमूमन प्रश्न है कि जब उस समय प्रेमचंद “कथा सम्राट” के रूप में प्रख्यात हो चुके थे तो पत्र पत्रिकाओं की क्या आवश्यकता थी?
पत्र पत्रिकाएँ उस दौर का सोशल मीडिया था। समाज में जो भी गतिविधियाँ होती थीं वे पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से आम जन तक पहुँचती थीं। प्रेमचन्द जी ने अपनी बातें पहुँचाने के लिए इस सशक्त माध्यम का चुनाव किया। आइए प्रेमचन्द जी द्वारा सम्पादित कुछ पत्रिकाओं पर प्रकाश डाला जाए।
“ज़माना”
प्रेमचंद जी ने लगभग पाँच से ज़्यादा पत्रिकाओं का सम्पादन किया है। उनमे से उनकी पहली पत्रिका थी “ज़माना” ज़माना उर्दू में छपती थी जो 1903 तक बरेली से निकलती थी। जब यह पत्रिका मुंशी दयानारायण के हाथों लगी तो वे इसे कानपुर ले आये। प्रेमचंद जी की भनेट कानपुर में मुंशी जी से हुई।
सन 1904 से 1909 तक प्रेमचंद जी ने इस पत्रिका का सम्पादन किया। प्रेमचन्द जी ने अपने लेख इस पत्रिका में अपने नाम के बगैर भी छापे। उस वक़्त प्रेमचन्द उर्दू में नवाब राय के नाम से लिखते थे। इसी पत्रिका में प्रेमचन्द की पहली कहानी “अनमोल रत्न” सन 1907 में प्रकाशित हुई। फिर उसके बाद सन 1908 में प्रेमचन्द जी की पाँच कहानियों का संग्रह “सोज़े वतन” प्रकाशित हुआ। जो बहुत चर्चित भी रहा।
इसके छपने से ब्रिटिश सरकार में हलचल मच गई थी और इनका ये कहानी संग्रह ज़ब्त कर लिया गया। तब मुंशी दयानारायण निगम जी ने धनपत राय यानी प्रेमचन्द जी को “प्रेमचन्द” के नाम से लिखने की सलाह दी। उसके बाद प्रेमचन्द इसी नाम से लिखने लगे और इसी नाम से प्रख्यात हुए।
“मर्यादा”
सन 1910 में पंडित मदन मोहन मालवीय ने मर्यादा का प्रकाशन अय्यूवया कार्यालय प्रयाग से शुरू किया जिसका सम्पादन मालवीय जी के बड़े भाई के पुत्र कृष्णकांत मालवीय ने किया जो कि हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार थे। 10 वर्ष पश्चात सन 1921 में कृष्णकांत मालवीय ने इसका प्रकाशन काशी के ज्ञान मंडल को सौंप दिया। तब इसका संपादन बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने किया था।
जब बाबू शिव प्रसाद गुप्त असहयोग आंदोलन के चलते जेल में चले गए थे तब इस पत्रिका का सम्पादन प्रेमचन्द जी ने किया। सन 1923 में इसका प्रकाशन बन्द हो गया पर साहित्यिक लेखों और अपने मौलिक राजनैतिक विचारों से इसका प्रभाव पाठकों के दिल ओ दिमाग़ पर लंबे समय तक रहा, जिससे हिंदी जगत में इस पत्रिका का नाम स्वतः ही स्थापित हो गया।
श्री बनारसीदास चतुर्वेदी जी लिखते हैं कि जब वे छात्र थे तो “मर्यादा” “सरस्वती” के बाद अत्यंत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित पत्रिका थी। वे ये भी लिखते हैं कि जब उनका लेख “मर्यादा” में प्रकाशित हुआ तो उनकी ख़ूब प्रशंसा हुई।
“चाँद”
श्री राम चन्द्र सहगल ने सन 1920 ई. में “चाँद” पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जिसका सम्पादन ज्ञानानंद ब्रह्मचारी ने किया। यह पत्रिका पहले साप्ताहिक छपती थी पर 1922 में यह मासिक प्रकाशित होने लगी। इस पत्रिका के सम्पादकों में श्री नंद किशोर तिवारी, चंडी प्रकाश हृदयेश और मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव का नाम शामिल है। पत्रिका में नारी विषयक समस्याओं को प्राथमिकता दी जाती थी।
इसी के चलते नवम्बर सन 1925 से दिसम्बर सन 1926 तक प्रेमचन्द जी द्वारा रचित उपन्यास “निर्मला” इसी पत्रिका में खंड खंड में प्रकाशित हुआ। पत्रिका के कुल सोलह विशेषांक प्रकाशित हुए। जिसमें सन 1928 में “फाँसी” नामक एक अंक प्रकाशित हुआ जो सरकार के गाल पर एक ज़ोर दर तमाचा था। इस अंक पर अंग्रेजों ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। उस समय यह अंक किसी व्यक्ति के पास पाये जाने पर उसे जेल भी हो सकती थी। पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर इसका उद्देश्य प्रकाशित होता था।
“आध्यात्मिक स्वराज हमारा ध्येय, सत्य हमारा साधन और प्रेम हमारी प्रणाली है। जब तक इस पावन अनुष्ठान में हम अविचलित हैं तब तक हमें भय नहीं कि हमारे विरोधियों की संख्या और शक्ति कितनी है”।

“माधुरी”
30 जुलाई सन 1922 को लखनऊ की नवल किशोर प्रेस से माधुरी का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इसके प्रकाशक श्री विष्णु नारायण भार्गव थे। माधुरी के सम्पादक मंडल में कृष्ण बिहारी मिश्र, दुलारे लाल भार्गव, रूप नारायण पांडेय, प्रेमचन्द, जगन्नाथ दास रत्नाकर और ब्रजरतन दास शामिल थे। 1927 से सन 1928 तक प्रेमचन्द और कृष्णबिहारी मिश्र ने इस पत्रिका का सम्पादन किया। माधुरी का प्रभाव पाठकों के मानस पटल इस कदर पड़ गया था कि उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका “सरस्वती” ने माधुरी के नक्श ए कदम पर अपनी रूपरेखा में काफी परिवर्तन कर लिया। अमृतलाल नागर ने अपनी आत्मकथा “टुकड़े टुकड़े दास्तान” में यह लिखा है कि सन 1933 में उनकी पहली कहानी माधुरी में छपी जिससे उन्हें बहुत सम्बल मिला।
माधुरी हिंदी साहित्य की पहली पत्रिका रही जिसने हिंदी को राष्ट्राभाषा बनाने की माँग की। माधुरी पत्रिका से हिंदी साहित्य के काफी लोगों का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है जिसमें निराला, कृष्ण बिहारी मिश्र और अमृत लाल नागर उल्लेखनीय हैं।



“हंस”
10 मार्च 1930 को प्रेमचन्द के सम्पादन में हंस का प्रकाशन बसन्त पंचमी के दिन काशी से हुआ। यह मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका में देश प्रेम, सामाजिक बुराईयाँ, राजनैतिक उथल पुथल, हिन्दू-मुस्लिम, किसान, मज़दूर, छूत अछूत, युद्ध-शांति, हिंदी उर्दू और तत्कालीन आर्थिक समस्याओं पर लेख शामिल थे। प्रेमचन्द उस समय गाँधी के अहिंसक आंदालनों से बहुत प्रभावित और गहरे स्तर तक जुड़े हुए थे जिसका परिणाम यह रहा कि हंस में छपने वाले लेख इसी विचारधारा से ओत प्रेत रहते थे।
हंस पत्रिका से कई बार जमानत भी माँगी गई जिसके चलते हंस और प्रेमचन्द दोनों घाटे में चले गए थे। इस बीच जागरण हंस और सरस्वती तीनों ज़बरदस्त घाटे में चल रही थीं तो प्रेमचन्द ने इससे निजात पाने हेतु पटकथा लेखन के लिए मुंबई जाना उचित समझा। अमृत राय “कलम के सिपाही” में लिखते हैं कि वहाँ जाते ही प्रेमचन्द ने जैनेन्द्र को एक पत्र लिखा कि एक फ़िल्म कम्पनी ने उन्हें एक साल के ठेके पर रख लिया है और कम्पनी उन्हें आठ हज़ार रुपये देगी। वे आगे लिखते हैं कि प्रेमचन्द फ़िल्म जगत से नाख़ुश थे क्योंकि बाज़ारवाद की गमक इस कदर थी कि फ़िल्मों का निर्देशन ढंग से नहीं किया जा रहा था। सन 1933 में प्रेमचन्द ने एक कहानी लिखी जिसका शीर्षक था मज़दूर।
निर्देशक मोहन भावनानी ने उनकी इस कहानी पर एक फ़िल्म बनाई जिसमें निर्देशक ने अपने स्तर पर कुछ बदलाव किये जो प्रेमचन्द को कतई पसन्द नहीं आये। ख़ास बात ये है कि इस फ़िल्म के आखिर में प्रेमचन्द भी अभिनय करते हुए दिखते हैं यह फ़िल्म प्रेमचन्द जी के चले जाने के बाद सन 1943 में यह फ़िल्म “द मील” के नाम से रिलीज़ हुई। प्रेमचन्द तीन साल मुम्बई रहे लेकिन तबियत नासाज़ रहने से प्रेमचन्द मुम्बई से लौट आये और लगातार लेखन में जुटे रहे।
जब हंस पत्रिका हिन्दू परिषद के संरक्षण में निकलती थी तब सन 1936 में हंस से फिर जमानत माँगी गयी। पत्रिका के घाटे में चले जाने के परिणामस्वरूप हिन्दू परिषद ने जमानत देने के स्थान पर पत्रिका को बंद कर देना ही उचित समझा। पर प्रेमचन्द हंस को बंद नहीं होने देना चाहते थे इसलिए गम्भीर हालत में भी प्रेमचन्द ने जमानत का प्रबंध किया। हंस पत्रिका का सम्पादन प्रेमचन्द जी के साथ गुजरात साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर मुंशी माणिकराम कन्हैयालाल जी ने भी किया था।
प्रेमचंद ने मुंशी जी के साथ हंस को “भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधि पत्र” के रूप में इसका प्रकाशन बम्बई से प्रारम्भ किया परन्तु यह प्रयोग सफल न हो सका। हंस के साथ मुंशी जी और प्रेमचन्द जी का एक किस्सा भी जुड़ा हुआ है इस संदर्भ में जगदीश व्योम अपने आलेख में लिखते हैं कि :
“प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एकमात्र कारण यही है कि ‘हंस’ नामक पत्र प्रेमचंद एवं ‘कन्हैयालाल मुंशी’ के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर ‘कन्हैयालाल मुंशी’ का पूरा नाम न छपकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था। (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।
संपादक
मुंशी, प्रेमचंद‘हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने ‘मुंशी’ तथा ‘प्रेमचंद’ को एक समझ लिया और ‘प्रेमचंद’- ‘मुंशी प्रेमचंद’ बन गए।”



हंस पत्रिका को लेकर प्रेमचन्द बहुत चिंतित रहते थे क्योंकि उस वक़्त हंस बहुत मुश्किल से निकलता था। अपने आख़िरी दिनों में प्रेमचन्द को यह बात बहुत सताती थी कि उनके बाद हंस कैसे जीवित रहेगा?
प्रेमचन्द जी के बाद उनकी पत्नी शिवरानी देवी और उनके दोनों पुत्र अमृत राय और श्रीपत राय ने इस कार्य का ज़िम्मा उठाया। करीब दो साल तक महात्मा गांधी और मुंशी जी भी हंस के सम्पादकीय मंडल में रहे। इसके बाद शमशेर बहादुर सिंह, गजानन मुक्तिबोध, जैनेन्द्र कुमार, त्रिलोचन और कुँवर नारायण ने हंस को निकालने में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई।
कुछ साल हंस का सम्पादन बन्द हो गया था किंतु सन 1986 में “अक्षर प्रकाशन” से “राजेन्द्र यादव” के सम्पादन में हंस पुनः प्रकाशित होने लगी। सन 2013 में राजेंद्र यादव जी के देहांत के बाद हंस को भारी क्षति पहुंची फिर भी हंस “संजय सहाय के सम्पादन में आज भी निकलती है और जीवित है।
wahaa behad khubsurat hemant ji.. esi knwledge jldi se knhi nhi mil payegi….
thank you hemant, thank you thedhiri