कब बिटिया को तुम्हारे फ़र्ज़ी मर्यादा वाले ढोंग से मुक्ति मिलेगी?
देश अपनी आजादी की वर्षगांठ मना रहा था।बाबूजी अखबार पढ़ रहे थे। बिटिया का आज कॉलेज में परफॉर्मेंस था लेकिन बेटी बड़ी हो गई थी अब। पिताजी को मर्यादा का ख्याल आया , रात में हुक्म सुना दिए कि कॉलेज जाना ही नहीं है , पन्द्रह अगस्त वाले दिन। ये आजादी के सालगिरह की पूर्व संध्या का नजारा था।
अब बिटिया की आजादी छीनकर तो आजादी की सालगिरह वाला दिन आया।
पिताजी रात में औरंगजेब होने के बाद सुबह अकबर हो गए थे। बिटिया सिसक रही थी अब तक।
अखबार पढ़ ही रहे थे कि गांव का बेचन चाय पीने घर चला आया। बेचन उनके खेत मे ही मजदूरी करता था। चाय ले आने का हुक्म अंदर दिया और बेचन का गिलास ढूंढने लगे जिसमे बेचन को रोज चाय दिया जाता था।
बेचन छोटी जाति से था तो बेचन का गिलास अलग था उसे घर के बर्तन में खाने-पीने का पदार्थ नहीं दिया जाता था।
ये आजादी के सालगिरह की सुबह की ही बात है।
पिताजी चाय पानी खत्म करके खेत की तरफ घूमने निकलने की सोच के घर से बाहर निकले। गाड़ी स्टार्ट किये थोड़ी देर बाद घर पर खबर आई कि पिताजी गाड़ी ले कर गिर गए हैं। सड़क पर गड्ढा था, गड्ढे में पानी। पिताजी को अंदाज नहीं मिला। गाड़ी फिसल गई।
ये सड़क अभी 2 महीने पहले ही करोड़ो खर्च कर के बनी थी। इतना जल्दी उजड़ गई।
आजादी वाले सालगिरह की सुबह की ही बात ये भी है।
घर आए तो हल्दी-प्याज का लेप तैयार होने लगा। बेटे ने अंग्रेजी दवा लाने का सुझाव दिया तो डांट कर चुप करा दिए।
यही स्थिति कमोबेश रोज ही रहती है। क्या बदल जाता है। कुछ भी तो नहीं। आजाद देश कागजों में तो हो गया लेकिन हमारा समाज और हमारा परिवार अब भी कुंठित और किसी गुलाम परम्परा के ही पदचिन्हों पर चल रहा है।
इसे बदलना पड़ेगा न ? तभी न कह पाएंगे हम खुद को आजाद। बेटे की बाप न सुने लेकिन बाप को लोकतांत्रिक सरकार चाहिए , अरे भाई परिवार में कब लोकतंत्र लाओगे?
कब बिटिया को तुम्हारे फ़र्ज़ी मर्यादा वाले ढोंग से मुक्ति मिलेगी?
बदलना पड़ेगा। और बदलने के लिए हमें हमारी तुलना अच्छे मुल्क के समाज से करनी पड़ेगी । न कि पाकिस्तान में इससे भी बुरे हालात हैं कह कर आत्ममुग्ध हो जाना है।
बदलिए और मानसिकता में आजादी बसाइये। बहुत मुश्किल नहीं है। हम उस के शासन से लड़ कर जीत चुके है जिनके बारे कहावत थी कि अंग्रेजों का कभी सूर्य नहीं डूबता है फिर ये लड़ाई तो हमारी खुद से है।
आइये लड़ें कुंठित विचारधारा की गुलामी से। और तब कहें हम आजाद हैं।
लेख – रोहित अनिल त्रिपाठी